Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान--मुंशी प्रेमचंद


डाक्टर मेहता परीक्षक से परीक्षार्थी हो गये हैं। मालती से दूर-दूर रहकर उन्हें ऐसी शंका होने लगी है कि उसे खो न बैठें। कई महीनों से मालती उनके पास न आयी थी और जब वह विकल होकर उसके घर गये, तो मुलाक़ात न हुई। जिन दिनों रुद्रपाल और सरोज का प्रेमकांड चलता रहा, तब तो मालती उनकी सलाह लेने प्रायः एक-दो बार रोज़ आती थी; पर जब से दोनों इंगलैंड चले गये थे, उनका आना-जाना बन्द हो गया था। घर पर भी मुश्किल से मिलती। ऐसा मालूम होता था, जैसे वह उनसे बचती है, जैसे बलपूर्वक अपने मन को उनकी ओर से हटा लेना चाहती है। जिस पुस्तक में वह इन दिनों लगे हुए थे, वह आगे बढ़ने से इनकार कर रही थी, जैसे उनका मनोयोग लुप्त हो गया हो। गृह-प्रबन्ध में तो वह कभी बहुत कुशल न थे। सब मिलकर एक हज़ार रुपए से अधिक महीने में कमा लेते थे; मगर बचत एक धेले की भी न होती थी। रोटी-दाल खाने के सिवा और उनके हाथ कुछ न था। तकल्लुफ़ अगर कुछ था तो वह उनकी कार थी, जिसे वह ख़ुद ड्राइव करते थे। कुछ रुपए किताबों में उड़ जाते थे, कुछ चन्दों में, कुछ ग़रीब छात्रों की परवरिश में और अपने बाग़ की सजावट में जिससे उन्हें इश्क़-सा था। तरह-तरह के पौधे और वनस्पतियाँ विदेशों से महँगे दामों मँगाना और उनको पालना; यही उनका मानसिक चटोरापन था या इसे दिमाग़ी ऐयाशी कहें; मगर इधर कई महीनों से उस बग़ीचे की ओर से भी वह कुछ विरक्त-से हो रहे थे और घर का इन्तज़ाम और भी बदतर हो गया था। खाते दो फुलके और ख़र्च हो जाते सौ से ऊपर! अचकन पुरानी हो गयी थी; मगर इसी पर उन्होंने कड़ाके का जाड़ा काट दिया। नयी अचकन सिलवाने की तौफ़ीक़ न हुई थी। कभी कभी बिना घी की दाल खाकर उठना पड़ता। कब घी का कनस्तर मँगाया था, इसकी उन्हें याद ही न थी, और महाराज से पूछें भी तो कैसे। वह समझेगा नहीं कि उस पर अविश्वास किया जा रहा है? आख़िर एक दिन जब तीन निराशाओं के बाद चौथी बार मालती से मुलाक़ात हुई और उसने इनकी यह हालत देखी, तो उससे न रहा गया। बोली -- तुम क्या अबकी जाड़ा यों ही काट दोगे? वह अचकन पहनते तुम्हें शर्म भी नहीं आती?

मालती उनकी पत्नी न होकर भी उनके इतने समीप थी कि यह प्रश्न उसने उसी सहज भाव से किया, जैसे अपने किसी आत्मीय से करती। मेहता ने बिना झेंपे हुए कहा -- क्या करूँ मालती, पैसा तो बचता ही नहीं।
मालती को अचरज हुआ -- तुम एक हज़ार से ज़्यादा कमाते हो, और तुम्हारे पास अपने कपड़े बनवाने को भी पैसे नहीं? मेरी आमदनी कभी चार सौ से ज़्यादा न थी; लेकिन मैं उसी में सारी गृहस्थी चलाती हूँ और कुछ बचा लेती हूँ। आख़िर तुम क्या करते हो?
'मैं एक पैसा भी फ़ालतू नहीं ख़र्च करता। मुझे कोई ऐसा शौक़ भी नहीं है। '
'अच्छा, मुझसे रुपए ले जाओ और एक जोड़ी अचकन बनवा लो।
मेहता ने लज्जित होकर कहा -- अबकी बनवा लूँगा। सच कहता हूँ।
'अब आप यहाँ आयें तो आदमी बनकर आयें। '
'यह तो बड़ी कड़ी शर्त है। '
'कड़ी सही। तुम जैसों के साथ बिना कड़ाई किये काम नहीं चलता। '
मगर वहाँ तो सन्दूक़ ख़ाली था और किसी दूकान पर बे पैसे जाने का साहस न पड़ता था! मालती के घर जायँ तो कौन मुँह लेकर? दिल में तड़प-तड़प कर रह जाते थे। एक दिन नयी विपत्ति आ पड़ी। इधर कई महीने से मकान का किराया नहीं दिया था। पचहत्तर रुपए माहवार बढ़ते जाते थे। मकानदार ने जब बहुत तक़ाज़े करने पर भी रुपए वसूल न कर पाये, तो नोटिस दे दी; मगर नोटिस रुपये गढ़ने का कोई जन्तर तो है नहीं। नोटिस की तारीख़ निकल गयी और रुपए न पहुँचे। तब मकानदार ने मज़बूर होकर नालिश कर दी। वह जानता था, मेहताजी बड़े, सज्जन और परोपकारी पुरुष हैं; लेकिन इससे ज़्यादा भलमनसी वह क्या करता कि छः महीने बैठा रहा। मेहता ने किसी तरह की पैरवी न की, एकतरफ़ा डिग्री हो गयी, मकानदार ने तुरत डिग्री जारी करायी और क़ुर्क़-अमीन मेहता साहब के पास पूर्व सूचना देने आया; क्योंकि उसका लड़का यूनिवर्सिटी में पढ़ता था और उसे मेहता कुछ वज़ीफ़ा भी देते थे। संयोग से उस वक़्त मालती भी बैठी थी। बोली -- कैसी क़ुर्क़ी है? किस बात की?
अमीन ने कहा -- वही किराये कि डिग्री जो हुई थी। मैंने कहा, हुज़ूर को इत्तला दे दूँ। चार-पाँच सौ का मामला है, कौन-सी बड़ी रक़म है। दस दिन में भी रुपए दे दीजिए, तो कोई हरज़ नहीं। मैं महाजन को दस दिन तक उलझाए रहूँगा।
जब अमीन चला गया तो मालती ने तिरस्कार-भरे स्वर से पूछा -- अब यहाँ तक नौबत पहुँच गई! मुझे आश्चर्य होता है कि तुम इतने मोटे-मोटे ग्रन्थ कैसे लिखते हो। मकान का किराया छः-छः महीने से बाक़ी पड़ा है और तुम्हें ख़बर नहीं।
मेहता लज्जा से सिर झुकाकर बोले -- ख़बर क्यों नहीं है; लेकिन रुपए बचते ही नहीं। मैं एक पैसा भी व्यर्थ नहीं ख़र्च करता।
'कोई हिसाब-किताब भी लिखते हो? '
'हिसाब क्यों नहीं रखता। जो कुछ पाता हूँ, वह सब दरज़ करता जाता हूँ, नहीं इनकमटैक्सवाले ज़िन्दा न छोड़ें। '
'और जो कुछ ख़र्च करते हो वह। '
'उसका तो कोई हिसाब नहीं रखता। '
'क्यों? '
'कौन लिखे? बोझ-सा लगता है। '
'और यह पोथे कैसे लिख डालते हो? '
'उसमें तो विशेष कुछ नहीं करना पड़ता। क़लम लेकर बैठ जाता हूँ। हर वक़्त ख़र्च का खाता तो खोलकर नहीं बैठता। '
'तो रुपए कैसे अदा करोगे? '
'किसी से क़रज़ ले लूँगा। तुम्हारे पास हों तो दे दो। '
'मैं तो एक ही शर्त पर दे सकती हूँ। तुम्हारी आमदनी सब मेरे हाथों में आये और ख़र्च भी मेरे हाथ से हो। '
मेहता प्रसन्न होकर बोले -- वाह, अगर यह भार ले लो, तो क्या कहना; मूसलों ढोल बजाऊँ।

मालती ने डिग्री के रुपए चुका दिये और दूसरे ही दिन मेहता को वह बँगला ख़ाली करने पर मज़बूर किया। अपने बँगले में उसने उनके लिए दो बड़े-बड़े कमरे दे दिये। उनके भोजन आदि का प्रबन्ध भी अपनी ही गृहस्थी में कर दिया। मेहता के पास और सामान तो ज़्यादा न था; मगर किताबें कई गाड़ी थीं। उनके दोनों कमरे पुस्तकों से भर गये। अपना बग़ीचा छोड़ने का उन्हें ज़रूर क़लक़ हुआ; लेकिन मालती ने अपना पूरा अहाता उनके लिए छोड़ दिया कि जो फूल-पत्तियाँ चाहें लगायें। मेहता तो निश्चिन्त हो गये; लेकिन मालती को उनकी आय-व्यय पर नियन्त्रण करने में बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा। उसने देखा, आय तो एक हज़ार से ज़्यादा है; मगर वह सारी की सारी गुप्तदान में उड़ जाती है। बीस-पच्चीस लड़के उन्हीं से वज़ीफ़ा पाकर विद्यालय में पढ़ रहे थे। विधवाओं की तादाद भी इससे कम न थी। इस ख़र्च में कैसे कमी करे, यह उसे न सूझता था। सारा दोष उसी के सिर मढ़ा जायगा, सारा अपयश उसी के हिस्से पड़ेगा। कभी मेहता पर झुँझलाती, कभी अपने ऊपर, कभी प्राथिर्यों के ऊपर, जो एक सरल, उदार प्राणी पर अपना भार रखते ज़रा भी न सकुचाते थे। यह देखकर और भी झुँझलाहट होती थी कि इन दान लेने वालों में कुछ तो इसके पात्र ही न थे। एक दिन उसने मेहता को आड़े हाथों लिया। मेहता ने उसका आक्षेप सुनकर निश्चिन्त भाव से कहा -- तुम्हें अख़्तियार है, जिसे चाहे दो, जिसे चाहे न दो। मुझसे पूछने की कोई ज़रूरत नहीं। हाँ, जवाब भी तुम्हीं को देना पड़ेगा।

मालती ने चिढ़कर कहा -- हाँ, और क्या, यश तो तुम लो, अपयश मेरे सिर मढ़ो। मैं नहीं समझती, तुम किस तर्क से इस दान-प्रथा का समर्थन कर सकते हो। मनुष्य-जाति को इस प्रथा ने जितना आलसी और मुफ़्तख़ोर बनाया है और उसके आत्मगौरव पर जैसा आघात किया है, उतना अन्याय ने भी न किया होगा; बल्कि मेरे ख़्याल में अन्याय ने मनुष्य-जाति में विद्रोह की भावना उत्पन्न करके समाज का बड़ा उपकार किया है।
मेहता ने स्वीकार किया -- मेरे भी यही ख़याल हैं।
'तुम्हारा यह ख़याल नहीं है। '
'नहीं मालती, मैं सच कहता हूँ। '
'तो विचार और व्यवहार में इतना भेद क्यों? '

मालती ने तीसरे महीने बहुतों को निराश किया। किसी को साफ़ जवाब दिया, किसी से मज़बूरी जताई, किसी की फ़जीहत की। मिस्टर मेहता का बजट तो धीरे-धीरे ठीक हो गया; मगर इससे उनको एक प्रकार की ग्लानि हुई। मालती ने जब तीसरे महीने में तीन सौ की बचत दिखायी, तब वह उससे कुछ बोले नहीं; मगर उनकी दृष्टि में उसका गौरव कुछ कम अवश्य हो गया। नारी में दान और त्याग होना चाहिए। उसकी यही सबसे बड़ी विभूति है। इसी आधार पर समाज का भवन खड़ा है। वणिक-बुद्धि को वह आवश्यक बुराई ही समझते थे। जिस दिन मेहता की अचकनें बन कर आयीं और नयी घड़ी आयी, वह संकोच के मारे कई दिन बाहर न निकले। आत्म-सेवा से बड़ा उनकी नज़र में दूसरा अपराध न था। मगर रहस्य की बात यह थी कि मालती उनको तो लेखे-डयोढ़े में कसकर बाँधना चाहती थी। उनके धन-दान के द्वार बन्द कर देना चाहती थी; पर ख़ुद जीवन-दान देने में अपने समय और सदाशयता को दोनों हाथों से लुटाती थी। अमीरों के घर तो वह बिना फ़ीस लिये न जाती थी; लेकिन ग़रीबों को मुफ़्त देखती थी, मुफ़्त दवा भी देती थी। दोनों में अन्तर इतना ही था, कि मालती घर की भी थी और बाहर की भी; मेहता केवल बाहर के थे, घर उनके लिए न था। निजत्व दोनों मिटाना चाहते थे। मेहता का रास्ता साफ़ था। उन पर अपनी ज़ान के सिवा और कोई ज़िम्मेदारी न थी। मालती का रास्ता कठिन था, उस पर दायित्व था, बन्धन था जिसे वह तोड़ न सकती थी, न तोड़ना चाहती थी। उस बन्धन में ही उसे जीवन की प्रेरणा मिलती थी। उसे अब मेहता को समीप से देखकर यह अनुभव हो रहा था कि वह खुले जंगल में विचरनेवाले जीव को पिंजरे में बन्द नहीं कर सकती। और बन्द कर देगी, तो वह काटने और नोचने दौड़ेगा। पिंजरे में सब तरह का सुख मिलने पर भी उसके प्राण सदैव जंगल के लिए ही तड़पते रहेंगे। मेहता के लिए घरबारी दुनिया एक अनजानी दुनिया थी, जिसकी रीति-नीति से वह परिचित न थे। उन्होंने संसार को बाहर से देखा था और उसे मक्त और फ़रेब से ही भरा समझते थे। जिधर देखते थे, उधर ही बुराइयाँ नज़र आती थीं; मगर समाज में जब गहराई में जाकर देखा, तो उन्हें मालूम हुआ कि इन बुराइयों के नीचे त्याग भी है प्रेम भी है, साहस भी है, धैर्य भी है; मगर यह भी देखा कि वह विभूतियाँ हैं तो ज़रूर, पर दुरलभ हैं, और इस शंका और सन्देह में जब मालती का अन्धकार से निकलता हुआ देवीरूप उन्हें नज़र आया, तब वह उसकी ओर उतावलेपन के साथ, सारा धैर्य खोकर टूटे और चाहा कि उसे ऐसे जतन से छिपाकर रखें कि किसी दूसरे की आँख भी उस पर न पड़े। यह ध्यान न रहा कि यह मोह ही विनाश की जड़ है। प्रेम-जैसी निर्मम वस्तु क्या भय से बाँधकर रखी जा सकती है? वह तो पूरा विश्वास चाहती है, पूरी स्वाधीनता चाहती है, पूरी ज़िम्मेदारी चाहती है। उसके पल्लवित होने की शक्ति उसके अन्दर है। उसे प्रकाश और क्षेत्र मिलना चाहिए। वह कोई दीवार नहीं है, जिस पर ऊपर से ईटें रखी जाती हैं। उसमें तो प्राण है, फैलने की असीम शक्ति है। जब से मेहता इस बँगले में आये हैं, उन्हें मालती से दिन में कई बार मिलने का अवसर मिलता है। उनके मित्र समझते हैं, यह उनके विवाह की तैयारी है। केवल रस्म अदा करने की देर है। मेहता भी यही स्वप्न देखते रहते हैं। अगर मालती ने उन्हें सदा के लिए ठुकरा दिया होता, तो क्यों उन पर इतना स्नेह रखती। शायद वह उन्हें सोचने का अवसर दे रही है, और वह ख़ूब सोचकर इसी निश्चय पर पहुँचे हैं कि मालती के बिना वह आधे हैं। वही उन्हें पूर्णता की ओर ले जा सकती है। बाहर से वह विलासिनी है, भीतर से वही मनोवृत्ति शक्ति का केन्द्र है; मगर परिस्थिति बदल गयी है। तब मालती प्यासी थी, अब मेहता प्यास से विकल हैं। और एक बार जवाब पा जाने के बाद उन्हें उस प्रश्न पर मालती से कुछ कहने का साहस नहीं होता, यद्यपि उनके मन में अब सन्देह का लेश नहीं रहा। मालती को समीप से देखकर उनका आकर्षण बढ़ता ही जाता है दूर से पुस्तक के जो अक्षर लिपे-पुते लगते थे, समीप से वह स्पष्ट हो गये हैं, उनमें अर्थ है सन्देश है। इधर मालती ने अपने बाग़ के लिए गोबर को माली रख लिया था। एक दिन वह किसी मरीज़ को देखकर आ रही थी कि रास्ते में पेट्रोल न रहा। वह ख़ुद ड्राइव कर रही थी। फ़िक्र हुई पेट्रोल कैसे आये? रात के नौ बज गये थे और माघ का जाड़ा पड़ रहा था। सड़कों पर सन्नाटा हो गया था। कोई ऐसा आदमी नज़र न आता था, जो कार को ढकेल कर पेट्रोल की दूकान तक ले जाय। बार-बार नौकर पर झुँझला रही थी। हरामख़ोर कहीं का। बेख़बर पड़ा रहता है। संयोग से गोबर उधर से आ निकला। मालती को खड़े देखकर उसने हालत समझ ली और गाड़ी को दो फ़लांग ठेल कर पेट्रोल की दूकान तक लाया। मालती ने प्रसन्न होकर पूछा -- नौकरी करोगे? गोबर ने धन्यवाद के साथ स्वीकार किया। पन्द्रह रुपए वेतन तय हुआ। माली का काम उसे पसन्द था। यही काम उसने किया था और उसमें मज़ा हुआ था। मिल की मजूरी में वेतन ज़्यादा मिलता था; पर उस काम से उसे उलझन होती थी। दूसरे दिन से गोबर ने मालती के यहाँ काम करना शुरू कर दिया। उसे रहने को एक कोठरी भी मिल गयी। झुनिया भी आ गयी। मालती बाग़ में आती तो उसे झुनिया का बालक धूल-मिट्टी में खेलता मिलता। एक दिन मालती ने उसे एक मिठाई दे दी। बच्चा उस दिन से परच गया। उसे देखते ही उसके पीछे लग जाता और जब तक मिठाई न लेता, उसका पीछा न छोड़ता। एक दिन मालती बाग़ में आयी तो बालक न दिखाई दिया। झुनिया से पूछा तो मालूम हुआ बच्चे को ज्वर आ गया है। मालती ने घबराकर कहा -- ज्वर आ गया! तो मेरे पास क्यों नहीं लायी? चल देखूँ। बालक खटोले पर ज्वर में अचेत पड़ा था। खपरैल की उस कोठरी में इतनी सील, इतना अँधेरा, और इस ठंड के दिनों में भी इतनी मच्छड़ कि मालती एक मिनट भी वहाँ न ठहर सकी; तुरन्त आकर थमार्मीटर लिया और फिर जाकर देखा, एक सौ चार था! मालती को भय हुआ, कहीं चेचक न हो। बच्चे को अभी तक टीका नहीं लगा था। और अगर इस सीली कोठरी में रहा, तो भय था, कहीं ज्वर और न बढ़ जाय। सहसा बालक ने आँखें खोल दीं और मालती को खड़ी पाकर करुण नेत्रों से उसकी ओर देखा और उसकी गोद के लिए हाथ फैलाये। मालती ने उसे गोद में उठा लिया और थपकियाँ देने लगी। बालक मालती के गोद में आकर जैसे किसी बड़े सुख का अनुभव करने लगा। अपनी जलती हुई उँगलियों से उसके गले की मोतियों की माला पकड़कर अपनी ओर खींचने लगा। मालती ने नेकलेस उतारकर उसके गले में डाल दी। बालक की स्वार्थी प्रकृति इस दशा में भी सजग थी। नेकलेस पाकर अब उसे मालती की गोद में रहने की कोई ज़रूरत न रही। यहाँ उसके छिन जाने का भय था। झुनिया की गोद इस समय ज़्यादा सुरिक्षत थी। मालती ने खिले हुए मन से कहा -- बड़ा चालाक है। चीज़ लेकर कैसा भागा! झुनिया ने कहा -- दे दो बेटा, मेम साहब का है। बालक ने हार को दोनों हाथों से पकड़ लिया और माँ की ओर रोष से देखा। मालती बोली -- तुम पहने रहो बच्चा, मैं माँगती नहीं हूँ। उसी वक़्त बँगले में आकर उसने अपना बैठक का कमरा ख़ाली कर दिया और उसी वक़्त झुनिया उस नये कमरे में डट गयी। मंगल ने उस स्वर्ग को कुतूहल-भरी आँखों से देखा। छत में पंखा था, रंगीन बल्ब थे, दीवारों पर तस्वीरें थीं। देर तक उन चीज़ों को टकटकी लगाये देखता रहा। मालती ने बड़े प्यार से पुकारा -- मंगल! मंगल ने मुस्कराकर उसकी ओर देखा, जैसे कह रहा हो -- आज तो हँसा नहीं जाता मेम साहब! क्या करूँ। आपसे कुछ हो सके तो कीजिए। मालती ने झुनिया को बहुत-सी बातें समझाईं और चलते-चलते पूछा -- तेरे घर में कोई दूसरी औरत हो, तो गोबर से कह दे, दो-चार दिन;के लिए बुला लावे। मुझे चेचक का डर है। कितनी दूर है तेरा घर? झुनिया ने अपने गाँव का नाम और पता बताया। अन्दाज़ से अट्ठारह-बीस कोस होंगे। मालती को बेलारी याद था। बोली -- वही गाँव तो नहीं, जिसके पच्छिम तरफ़ आध मील पर नदी है?

'हाँ-हाँ मेम साहब, वही गाँव है। आपको कैसे मालूम? '
'एक बार हम लोग उस गाँव में गये थे। होरी के घर ठहरे थे। तू उसे जानती है? '
'वह तो मेरे ससुर हैं मेम साहब। मेरी सास भी मिली होंगी। '
'हाँ-हाँ, बड़ी समझदार औरत मालूम होती थी। मुझसे ख़ूब बातें करती रही। तो गोबर को भेज दे, अपनी माँ को बुला लाये। '
'वह उन्हें बुलाने नहीं जायेंगे। '
'क्यों? '
'कुछ ऐसा कारन है। '

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